Friday 2 August 2013

चाहते हैं पापों से मुक्ति तो रखें कामिका एकादशी का व्रत

श्रावण मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को कामिका एकादशी कहते है| इसे पवित्र एकादशी के नाम से भी जाना जाता है| इस बार कामिका एकादशी 2 अगस्त दिन शुक्रवार को पड़ रही है| इस दिन भगवान विष्णु की पूजा होती है| कामिका एकादशी व्रत के पुण्य से जीवात्मा को पाप से मुक्ति मिलती है| मान्यता है कि जो भी व्यक्ति यह व्रत रखता है उसे मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है साथ ही उसके समस्त कष्टों का निवारण हो जाता है| कामिका एकादशी को श्री विष्णु का उत्तम व्रत कहा गया है कहा जाता है कि इस एकादशी की कथा श्री कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को सुनाई थी| इससे सूर्यवंशी राजा दिलीप को वशिष्ठ मुनि ने सुनायी थी जिसे सुनकर उन्हें पापों से मुक्ति एवं मोक्ष प्राप्त हुआ| 

कामिका एकादशी व्रत विधि-

कामिका एकादशी के दिन सुबह जल्दी उठना चाहिए| स्नान से पहले नित्यक्रियाओं से मुक्त होना चाहिए और स्नान करने के लिये मिट्टी, तिल और कुशा का प्रयोग करना चाहिए| स्नान करने के बाद साफ वस्त्र धारण करने चाहिए और भगवान श्री विष्णु के समक्ष व्रत का संकल्प लेना चाहिए| इसके बाद भगवान का पूजन करना चाहिए| भगवान विष्णु को फूल, फल, तिल, दूध, पंचामृत आदि नाना पदार्थ निवेदित करके, आठों प्रहर निर्जल रहकर विष्णु जी के नाम का स्मरण एवं कीर्तन करना चाहिए| एकादशी व्रत में ब्राह्मण भोजन एवं दक्षिणा का बड़ा ही महत्व है अत: ब्राह्मण को भोजन करवाकर दक्षिणा सहित विदा करने के पश्चात ही भोजन ग्रहण करें|

कामिका एकादशी व्रत कथा-

एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा: हे! प्रभु श्रावण के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? कृपया उसका वर्णन कीजिये ।

इस पर भगवान श्रीकृष्ण बोले: राजन् ! सुनो । मैं तुम्हें एक पापनाशक उपाख्यान सुनाता हूँ, जिसे पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने नारदजी के पूछने पर कहा था।

एक बार नारद जी ने ब्रम्हा जी से प्रश्न किया: हे कमलासन मैं आपसे यह सुनना चाहता हूँ कि श्रवण के कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? उसके देवता कौन हैं तथा उससे कौन सा पुण्य होता है? प्रभु इसका विस्तार से वर्णन कीजिये| 

ब्रम्हाजी ने नारद के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा: नारद! सुनो । मैं सम्पूर्ण लोकों के हित की इच्छा से तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ । श्रावण मास में जो कृष्णपक्ष की एकादशी होती है, उसका नाम ‘कामिका’ है । उसके स्मरणमात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। उस दिन श्रीधर, हरि, विष्णु, माधव और मधुसूदन आदि नामों से भगवान का पूजन करना चाहिए ।

भगवान श्रीकृष्ण के पूजन से जो फल मिलता है, वह गंगा, काशी, नैमिषारण्य तथा पुष्कर क्षेत्र में भी सुलभ नहीं है । सिंह राशि के बृहस्पति होने पर तथा व्यतीपात और दण्डयोग में गोदावरी स्नान से जिस फल की प्राप्ति होती है, वही फल भगवान श्रीकृष्ण के पूजन से भी मिलता है ।

जो समुद्र और वनसहित समूची पृथ्वी का दान करता है तथा जो ‘कामिका एकादशी’ का व्रत करता है, वे दोनों समान फल के भागी माने गये हैं।

जो ब्यायी हुई गाय को अन्यान्य सामग्रियों सहित दान करता है, उस मनुष्य को जिस फल की प्राप्ति होती है, वही ‘कामिका एकादशी’ का व्रत करने वाले को मिलता है। जो नरश्रेष्ठ श्रावण मास में भगवान श्रीधर का पूजन करता है, उसके द्वारा गन्धर्वों और नागों सहित सम्पूर्ण देवताओं की पूजा हो जाती है ।

अत: पापभीरु मनुष्यों को यथाशक्ति पूरा प्रयत्न करके ‘कामिका एकादशी’ के दिन श्रीहरि का पूजन करना चाहिए। जो पापरुपी पंक से भरे हुए संसार समुद्र में डूब रहे हैं, उनका उद्धार करने के लिए ‘कामिका एकादशी’ का व्रत सबसे उत्तम है । अध्यात्म विधापरायण पुरुषों को जिस फल की प्राप्ति होती है, उससे बहुत अधिक फल ‘कामिका एकादशी’ व्रत का सेवन करने वालों को मिलता है।

‘कामिका एकादशी’ का व्रत करने वाला मनुष्य रात्रि में जागरण करके न तो कभी भयंकर यमदूत का दर्शन करता है और न कभी दुर्गति में ही पड़ता है । लालमणि, मोती, वैदूर्य और मूँगे आदि से पूजित होकर भी भगवान विष्णु वैसे संतुष्ट नहीं होते, जैसे तुलसीदल से पूजित होने पर होते हैं । जिसने तुलसी की मंजरियों से श्रीकेशव का पूजन कर लिया है, उसके जन्मभर का पाप निश्चय ही नष्ट हो जाता है ।

‘जो दर्शन करने पर सारे पापसमुदाय का नाश कर देती है, स्पर्श करने पर शरीर को पवित्र बनाती है, प्रणाम करने पर रोगों का निवारण करती है, जल से सींचने पर यमराज को भी भय पहुँचाती है, आरोपित करने पर भगवान श्रीकृष्ण के समीप ले जाती है और भगवान के चरणों मे चढ़ाने पर मोक्षरुपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी देवी को नमस्कार है ।’

जो मनुष्य एकादशी को दिन रात दीपदान करता है, उसके पुण्य की संख्या चित्रगुप्त भी नहीं जानते। एकादशी के दिन भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख जिसका दीपक जलता है, उसके पितर स्वर्गलोक में स्थित होकर अमृतपान से तृप्त होते हैं। घी या तिल के तेल से भगवान के सामने दीपक जलाकर मनुष्य देह त्याग के पश्चात् करोड़ो दीपकों से पूजित हो स्वर्गलोक में जाता है।’

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: युधिष्ठिर ! यह तुम्हारे सामने मैंने ‘कामिका एकादशी’ की महिमा का वर्णन किया है । ‘कामिका’ सब पातकों को हरनेवाली है, अत: मानवों को इसका व्रत अवश्य करना चाहिए। यह स्वर्गलोक तथा महान पुण्यफल प्रदान करने वाली है । जो मनुष्य श्रद्धा के साथ इसका माहात्म्य श्रवण करता है, वह सब पापों से मुक्त हो श्रीविष्णुलोक में जाता है । 

वहीं कामिका एकादशी के बारे में एक दूसरी कथा प्रचलित है जो इस प्रकार है- प्राचीन काल में किसी गांव में एक ठाकुर जी थे| क्रोधी ठाकुर का एक ब्राह्मण से झगडा हो गया और क्रोध में आकर ठाकुर से ब्राह्मण का खून हो जाता है| अत: अपने अपराध की क्षमा याचना हेतु ब्राहमण की क्रिया उसने करनी चाही परन्तु पंडितों ने उसे क्रिया में शामिल होने से मना कर दिया और वह ब्रहम हत्या का दोषी बन गया परिणाम स्वरुप ब्राह्मणों ने भोजन करने से इंकार कर दिया| तब उन्होने एक मुनि से निवेदन किया कि हे भगवान, मेरा पाप कैसे दूर हो सकता है| इस पर मुनि ने उसे कामिका एकाद्शी व्रत करने की प्रेरणा दी| ठाकुर ने वैसा ही किया जैसा मुनि ने उसे करने को कहा था| जब रात्रि में भगवान की मूर्ति के पास जब वह शयन कर रहा था| तभी उसे स्वपन में प्रभु दर्शन देते हैं और उसके पापों को दूर करके उसे क्षमा दान देते हैं|

सोमवार व्रत कथा, विधि व आरती


|| सोमवार व्रत के नियम ||


- आमतौर पर सोमवार का व्रत तीसरे पहर तक होता है|
- व्रत में अन्न या फल का कोई नियम नहीं है |
- भोजन केवल एक ही बार किया जाता है|
- व्रतधारी को गौरी- शंकर की पूजा करनी चाहिए|
- तीसरे पहर, शिव पूजा करके, कथा कह सुनकर भोजन करना चाहिए|




|| साधारण सोमवार व्रत की कथा ||


एक नगर में एक शेठ रहता था| उसे धन एश्वर्य की कोई कमी न थी फिर भी वह दुखी था क्योंकि उसके कोई पुत्र न था| पुत्र प्राप्ति के लिए वह प्रत्येक सोमवार को व्रत रखता था तथा पूरी श्रद्धा के साथ शिवालय में जाकर भगवन गौरी-शंकर की पूजा करता था| उसके भक्तिभाव से दयामयी पार्वती जी द्रवित हो गई और एक दिन अच्छा अवसर देखकर उन्होंने शंकर जी से विनती की,"स्वामी ! यह नगर शेठ आपका परमभक्त है, नियमित रूप से आपका व्रत रखता है, फिर भी पुत्र के आभाव से पीड़ित है| कृपया इसकी कामना पूरी करें|"




दयालू पार्वती की ऐसी इच्छा को सुनकर भगवन शंकर ने कहा, पार्वती ! यह संसार, कर्मभूमि है| इसमें जो करता है, वह वैसा ही भरता है | इस साहूकार के भाग्य में पुत्र सुख नहीं है| शंकर के इंकार से पार्वती जी निराश नहीं हुई | उन्होंने शंकर जी से तब तक आग्रह करना जरी रखा जब तक कि वे उस साहूकार को पुत्र सुख देने को तैयार नहीं हो गए|




भगवन शंकर ने पार्वती से कहा- तुम्हारी इच्छा है इसलिए मै इसे एक पुत्र प्रदान करता हूँ लेकिन उसकी आयु केवल 12 वर्ष होगी| संयोग से नगर शेठ गौरी- शंकर संवाद सुन रहा था| समय आने पर नगर शेठ को सर्व सुख संपन्न पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई| सब और खुशियाँ मनाई गईं| नगर शेठ को बधाइयाँ दी गई| लेकिन नगर शेठ की उदासी में कोई कमी नहीं आई, क्योंकि वह जानता था, कि वह पुत्र केवल 12 वर्ष के लिए प्राप्त हुआ है| उसकी बाद काल इसे मुझसे छीन लेगा| इतने पर भी सेठ ने सोमवार का व्रत और गौरी शंकर का पूजन हवन यथाविधि पहले की तरह ही जारी रखा|




जब बालक ग्यारह वर्ष का हो गया तो वह पूर्ण युवा जैसा लगने लगा, फलतः सभी चाहने लगे कि उसका विवाह कर दिया जाए| नगर सेठानी का भी यही आग्रह था | किन्तु नगर सेठ पुत्र के विवाह के लिए तैयार नहीं हुआ| उसने अपने साले को बुलवाकर आदेश दिया कि वह पर्याप्त धन लेकर पुत्र सहित काशी के लिए कूच करे और रास्ते में भजन तथा दान- दक्षिणा देता हुआ काशी पहुंचकर सर्व विद्या में पूर्ण बनाने का प्रयास करे| मामा भांजे काशी के लिए रवाना हुए| हर पड़ाव पर वे यज्ञ करते, ब्राह्मणों को भोजन कराते और दान- दक्षिणा देकर दीनहीनों को संतुष्ट करते इसी प्रकार वह काशी की ओर बढ़ रहे थे कि एक नगर में उनका पड़ाव पड़ा था और उस दिन उस नगर के राजा की कन्या का विवाह था, बारात आ चुकी थी, किंतु वर पक्ष वाले भयभीत थे, क्योंकि उनका वर एक आँख से काना था, उन्हें एक सुन्दर युवक की आवश्यकता थी| गुप्तचरों से राजा को जब सेठ के पुत्र के रूप गुण की चर्चा का पता चला तो उन्होंने विवाह के पूरा होने तक लड़का यदि दूल्हा बना रहेगा तो वे उन दोनों को बहुत धन देंगे और उनका अहसान भी मानेंगे| नगर सेठ का लड़का इस बात के लिए राजी हो गया| कन्या पक्ष के लोगों ने राजा की पुत्री के भाग्य की बहुत सराहना की कि उसे इतना सुन्दर वर मिला| जब सेठ का पुत्र विदा होने लगा तो उसने राजा की पुत्री की चुनरी पर लिख दिया कि तुम्हारा विवाह मेरे साथ हुआ है| मै राजा का लड़का न होकर नगर सेठ का पुत्र हूँ और विद्याअध्ययन के लिए काशी जा रहा हूँ| राजा का लड़का तो काना है| राजा की लडकी ने अपनी चुनरी पर कुछ लिखा हुआ देखा तो उसे पढ़ा और विदा के समय काने लड़के के साथ जाने से इंकार कर दिया फलतः राजा की बारात खाली हाथ लौट गई| नगर सेठ का पुत्र काशी जाकर पूरी श्रद्धा और भक्ति से विद्याध्ययन में जुट गया| उसके मामा ने यज्ञ और दान पुण्य का काम जारी रखा| जिस दिन लड़का पूरे 12 वर्ष का हो गया उस दिन भी और दिनों की भांति यज्ञादि हो रहे थे| तभी उसकी तबियत ख़राब हुई| वह भवन के अन्दर ही आकर एक कमरे में लेट गया| थोड़ी देर में मामा पूजन करने को उसे लेने आया तो उसे मरा देखा उसे अत्यंत दुःख हुआ और वह बेहोश हो गया| जब उसे होश आया तो उसने सोचा मै अगर रोया चिल्लाया तो पूजन में विघ्न पड़ेगा| ब्रह्मण लोग भोजन त्याग कर चल देंगे| अतः उसने धैर्य धारण कर समस्त कार्य निपटाया| और उसके बाद जो उसने रोना शुरू किया तो उसे सुनकर सभी का ह्रदय विदीर्ण होने लगा| सौभाग्य से उसी समय, उसी रास्ते से गौरी-शंकर जा रहे थे| गौरी के कानों में वह करुण क्रंदन पहुंचा तो उनका वात्सल्य से पूर्ण ह्रदय करुणा से भर गया| सही स्थित का ज्ञान होने पर उन्होंने शंकर भगवान से आग्रह किया कि वे बालक को पुनः जीवन प्रदान कर दें| शंकर भगवान को पार्वती जी की प्रार्थना स्वीकार करनी पड़ी| नगर सेठ का इकलौता लाल पुनः जीवित हो गया| शिक्षा समाप्त हो चुकी थी| मामा भांजे दोनों वापिस अपने नगर के लिए रवाना हुए रास्ते में पहले की तरह दान दक्षिणा देते उसी नगर में पहुंचे जहाँ राजा की कन्या के साथ लड़के का विवाह हुआ था, तो ससुर ने लड़के को पहचान लिया| अत्यंत आदर सत्कार के साथ उसे महल में ले गया| शुभ मुहूर्त निकल कर कन्या और जामाता को पूर्ण दहेज़ के साथ विदा किया| नगर सेठ का लड़का पत्नी के साथ जब अपने घर पहुंचा तो पिता को यकीन ही नहीं आया| लड़के के माता- पिता अपनी हवेली पर चढ़े बैठे थे| उनकी प्रतिज्ञा थी कि वहां से तभी उतरेंगे जब उनका लड़का स्वयं अपने हाथ से उन्हें नीचे उतारेगा, वरना ऊपर से ही छलांग लगाकर आत्महत्या कर लेंगे| पुत्र अपनी पत्नी के साथ हवेली की छत पर गया| जहाँ जाकर माँ बाप के सपत्नीक चरण स्पर्श किए| पुत्र और पुत्र वधु को देखकर नगर सेठ और सेठानी को अत्यंत हर्ष हुआ| सबने मिलकर उत्सव मनाया|




|| शिव जी की आरती ||


जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा ।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धांगी धारा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा


एकानन चतुरानन पंचानन राजे ।
हंसासन गरूड़ासन वृषवाहन साजे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा


दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहे ।
त्रिगुण रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा


अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी ।
त्रिपुरारी कंसारी कर माला धारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा


श्वेतांबर पीतांबर बाघंबर अंगे ।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा


कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूलधारी ।
सुखकारी दुखहारी जगपालन कारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा


ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका ।
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका ॥
ॐ जय शिव ओंकारा


लक्ष्मी व सावित्री पार्वती संगा ।
पार्वती अर्द्धांगी, शिवलहरी गंगा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा


पर्वत सोहैं पार्वती, शंकर कैलासा ।
भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा ॥
ॐ जय शिव ओंकारा


जटा में गंग बहत है, गल मुण्डन माला ।
शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला ॥
ॐ जय शिव ओंकारा


काशी में विराजे विश्वनाथ, नंदी ब्रह्मचारी ।
नित उठ दर्शन पावत, महिमा अति भारी ॥
ॐ जय शिव ओंकारा


त्रिगुणस्वामी जी की आरति जो कोइ नर गावे ।
कहत शिवानंद स्वामी सुख संपति पावे ॥
ॐ जय शिव ओंकारा

हनुमान चालीसा




श्रीगुरु चरण सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि

बरनउ रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि




बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार

बल बुधि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार




चौपाई

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर

जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥१॥




राम दूत अतुलित बल धामा

अंजनि पुत्र पवनसुत नामा॥२॥




महाबीर बिक्रम बजरंगी

कुमति निवार सुमति के संगी॥३॥




कंचन बरन बिराज सुबेसा

कानन कुंडल कुँचित केसा॥४॥




हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजे

काँधे मूँज जनेऊ साजे॥५॥




शंकर सुवन केसरी नंदन

तेज प्रताप महा जगवंदन॥६॥




विद्यावान गुनी अति चातुर

राम काज करिबे को आतुर॥७॥




प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया

राम लखन सीता मनबसिया॥८॥




सूक्ष्म रूप धरि सियहि दिखावा

विकट रूप धरि लंक जरावा॥९॥




भीम रूप धरि असुर सँहारे

रामचंद्र के काज सवाँरे॥१०॥




लाय सजीवन लखन जियाए

श्री रघुबीर हरषि उर लाए॥११॥




रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई

तुम मम प्रिय भरत-हि सम भाई॥१२॥




सहस बदन तुम्हरो जस गावै

अस कहि श्रीपति कंठ लगावै॥१३॥




सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा

नारद सारद सहित अहीसा॥१४॥




जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते

कवि कोविद कहि सके कहाँ ते॥१५॥




तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा

राम मिलाय राज पद दीन्हा॥१६॥




तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना

लंकेश्वर भये सब जग जाना॥१७॥




जुग सहस्त्र जोजन पर भानू

लिल्यो ताहि मधुर फ़ल जानू॥१८॥




प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही

जलधि लाँघि गए अचरज नाही॥१९॥




दुर्गम काज जगत के जेते

सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥२०॥




राम दुआरे तुम रखवारे

होत ना आज्ञा बिनु पैसारे॥२१॥




सब सुख लहैं तुम्हारी सरना

तुम रक्षक काहु को डरना॥२२॥




आपन तेज सम्हारो आपै

तीनों लोक हाँक तै कापै॥२३॥




भूत पिशाच निकट नहि आवै

महावीर जब नाम सुनावै॥२४॥




नासै रोग हरे सब पीरा

जपत निरंतर हनुमत बीरा॥२५॥




संकट तै हनुमान छुडावै

मन क्रम वचन ध्यान जो लावै॥२६॥




सब पर राम तपस्वी राजा

तिनके काज सकल तुम साजा॥२७॥




और मनोरथ जो कोई लावै

सोई अमित जीवन फल पावै॥२८॥




चारों जुग परताप तुम्हारा

है परसिद्ध जगत उजियारा॥२९॥




साधु संत के तुम रखवारे

असुर निकंदन राम दुलारे॥३०॥




अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता

अस बर दीन जानकी माता॥३१॥




राम रसायन तुम्हरे पासा

सदा रहो रघुपति के दासा॥३२॥




तुम्हरे भजन राम को पावै

जनम जनम के दुख बिसरावै॥३३॥




अंतकाल रघुवरपुर जाई

जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई॥३४॥




और देवता चित्त ना धरई

हनुमत सेई सर्व सुख करई॥३५॥




संकट कटै मिटै सब पीरा

जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥३६॥




जै जै जै हनुमान गुसाईँ

कृपा करहु गुरु देव की नाई॥३७॥




जो सत बार पाठ कर कोई

छूटहि बंदि महा सुख होई॥३८॥




जो यह पढ़े हनुमान चालीसा

होय सिद्ध साखी गौरीसा॥३९॥




तुलसीदास सदा हरि चेरा

कीजै नाथ हृदय मह डेरा॥४०॥




दोहा

पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥